नानी की लोरी दादी का दुलार ,
माँ की डांट , पिता की फटकार ,
नहीं कोई वास्ता इन नन्हे मुन्हो को ,
उनको तो है बस अपने आप से प्यार।
जी हाँ ! आज के इस व्यस्त जीवन में किसी के पास इतना समय ही कहाँ है कि वो अपनों के साथ वक़्त गुजार सके। छोटे छोटे नन्हे मुन्हो से लेकर बड़े – बूढ़ो तक हर कोई अपनी अपनी जिंदगी में इस कदर व्यस्त है कि आज रिश्तो के मायने ही बदल गए हैं। ये सब देख कर कभी -कभी मन में आता है कि हमसे ज्यादा खुश तो हमारे पूर्वज ही थे , कम से कम सुख – दुःख में साथ देने के लिए अपने तो होते थे। हर सुबह माँ के स्पर्श से ही खूबसूरत हो जाती। माँ अपना पूरा लाड -प्यार अपने बच्चो पर ऐसे न्योछावर करती ,जैसे जिंदगी में जीने की कोई और वजह ही न बची हो और कभी पिता ने गुस्से में आकर डांट लगा दी तो भागते – भागते जाना और दादी के आँचल के पीछे छिप जाना और रात को ——-रात को जब तक दादी की गोद में सर रख कर चार -पांच कहानिया न सुन लो तो नींद कहा आने का नाम लेती और भाई -बहन की हसी -ठिठोली से पूरा घर आँगन गूंजता रहता था। लकिन आज ——आज ये सब कुछ सोचो तो ये किसी पारी कस्था से कम प्रतीत नहीं होती। आज रिश्तो के बदलते स्वरुप ने सच्ची आत्माओं को लहू लुहान कर दिया है, पटल को झकझोर कर रख दिया है। आज हम चेहरे पर बनावटी ख़ुशी लिए घूम तो रहे है , लकिन मन में केवल दुःख , दर्द , घृणा ,तनाव , जलन के सिवाय कुछ भी देखने को नहीं मिलता। हमने सुख -सुविधाओं के अम्बार तो लगा लिए है—–लकिन लगता है हमारा असली सुख , हमारे मन की शांति हमारे पूर्वज ही अपने साथ ले गए है। आज जिंदगी की भागम -भाग में अपने ही खून के रिश्ते पानी बन गए है। एक समय था जब माता -पिता के चरणों में स्वर्ग समझा जाता था और चेहरे में भगवन की मूरत—–लकिन आज उन्ही को पाँव की जूती समझा जाता है। एक समय था जब एक बेटा श्रवण कुमार अपने अंधे बूढ़े माता -पिता को अकेले ही कन्धों पर तीर्थ यात्रा पर ले गया था और एक आज का है श्रवण कुमार जिसे अपने ही माता -पिता को एक ही घर की छत के नीचे रखने में शर्म आती है। आज प्रत्येक रिश्ते में केवल स्वार्थ ही स्वार्थ रह गया है। एक समय था , जब दीपक जलाया जाता था किसी को राह दिखने के लिए , आज दीपक नहीं—पूरी की पूरी मशाले जलती है जनाब ,लकिन किसी का घर जलने के लिए। आज चाहे भगवन के नाम पर मंदिरो में बड़े -बड़े दान किये जाते है। ..लकिन—–लकिन हम बहार किसी भूखे इंसान के मुख से निवाला छीनने में हम जरा सा भी नहीं कतराते। जमीन के एक छोटे से टुकड़े की खतिर आज चारो और लाशें ही लाशें बिछ रही है।
याद है वो कारगिल का युद्ध ??????? कश्मीर के एक छोटे से टुकड़े की खातिर हम लोग कैसे खून की नदिया बहाने के लिए तैयार हो गए थे। आज हर राह मैदान बन गया है—– चिताये ही चिताये जल रही है—- हर तरफ शमशान ही शमशान नज़र आ रहा है। देश की तो बात छोड़ो आज का अपना सगा भाई अपने भाई की कामयाबी बर्दाश्त नहीं कर सकता। ..लकिन वो भी एक समय था जब अपने भाई श्री राम का हक़ न मिलने पर भारत का खून खौल उठा था और अपनी ही माँ के विरोध में खड़ा हो गया था तो फिर आज क्यों रिश्तो के मायने , उनकी परिभाषा ही बदलती जा रही है ??????? क्यों लाचार बूढ़ो की लाचारी और भी बढ़ती जा रही है ?????क्यों दुधमुहे बच्चे अपनी माँ से अलग दिन भर किसी क्रेच में पड़े रहते है ?????क्यों आज हर कोई चाहे बच्चा हो या बूढ़ा , किशोर हो नौजवान तरस रहा है ???????लगता है—–शायद दिन भर मशीनों में घिरे रहने के कारण सीने में भी दिल की जगह दिमाग निवास करने लगा है। या यु कहे दिल ही नहीं रहा शायद। ये प्रेम , सहयोग की भावना तो एक जानवर में भी होती है तो फिर हम क्यों एक जानवर से भी बद्द्तर जिंदगी जीने के लिए मजबूर है ????लाहनत है ——लाहनत है —-ऐसी जिंदगी पर जहा हर रिश्ते , हर नाते को पैसे से तोला जाए—-आज इस माया नगरी में एक एक रिश्ता बिकता है —–जनाब ——एक एक रिस्ता बिकता है
कीमत से आँका जाता ,हर नाता हर प्यार है।
ऐसा है माहौल कि घर भी लगता बाजार है।

